________________
छन्द
विषस्थल सम होय, शत्रु मित्रत्व विचारे। सुत अर्थी सुत लहे, निर्धनी मरै भंडारे।। रोगी होय अरोग, शोक की भूमि विदारे।
नीचकुली कुल लहे, कुरूपी रूप सम्हारे। मन वचन काय जो पाठ यह, पढ़े पढ़ावे सुने नित। मनरंगलाल ता पुरुष को, देख इन्द्र होवे चकित।।
।। इति श्री चतुर्विंशति जिनपूजन।।
ओं ह्रीं श्री वर्धमान जिनेन्द्राय नमः।
(इस मंत्र की जाप्य देना)
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ।।
395