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काव्य छन्द
पूरण यह जयमाल भई अन्तिम जिन के | पढ़त सुनत मनरंग कहै नसि है भव फेरी ॥ बस है शिवथल मांहि जहां काया नहिं हेरी ।
ज्ञान मई भगवान जाय ह्वै हैं गुण ढेरी || हरो मोहत जाल हाल शिवबाल निहारो। हरो मिथ्या जाल नाल चहूँ कित्ति पसारो ।। सारी कारज वेस लेस सम मान न धारो । धारो निजगुण चित्त मित्त जिनराज पुकारो। मरो न एकै काल माल विद्या की डारो । भारभार दुनिआवी जारो
जारो नहीं निज रीति प्रीति दुरगति की मारो। मारो सन्निधि होय दोह रंचक न विचवरो ।। ओं ह्री श्री वर्धमानजिनेन्द्राय सर्वसुखप्राप्तये पूर्णार्घ्यम्।
छप्पन-छन्द
होहु अनंग स्वरूप भूप को पद विस्तारो । तारो अपने न कुलै भुलैमद माया टारो || टारहु नहिं निज आनि, वानि ममता की गारो । गारौ ना कुलकानि, जानि के मदन प्रहारो मनरंग कहत धन्य धान्य, अरु पुत्र पौत्र करि घर भरो। श्रीवीरनाथ जिनराज तें, तुमको ये कारज सरो।।
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