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5. अन्यत्व भावना
मोह-रूप मृग-तृष्णा जग में, मिथ्या जल चमके। मृग चेतन नित भ्रम में उठ उठ, दौड़ें थक थक के।। जल नहिं पावे प्राण मगावे, भटक भटक मरता । वस्तु पराई माने अपनी, भेद नहीं करता । 12 । तू चेतन अरु देह अचेतन, यह जड़ तू ज्ञानी । मिले-अनादि यतन तैं बिछुडे, ज्यों पय अरु पानी।।
रूप तुम्हारा सब सों न्यारा, भेद ज्ञान करना। जलों पौरुष थके न तौ लों उद्यम सों चरना। 13। 6. अशुचि भावना
तूति पोखै यह सूखे ज्यों, धोवै त्यों मैली। निश दिन करै उपाय देह का, रोग-दशा फैली। मात-पिता-रज-वीरज मिलकर, बनी देह तेरी । मांस हाड़ नश लहू राध की, प्रगट व्याधि घेरी। 14 काना पौंडा पड़ा हाथ यह चूसै तो रोवै । फलै अनंत धर्म ध्यानकी, भूमि-विषै बोवै।। केसर चंदन पुष्प सुगंन्धित, वस्तु देख सारी । देह परसते होय अपावन, निशदिन मल जारी । 15। 7. आस्रव भावना
ज्यों सर-जल आवत मोरी, त्यों आस्रव कर्मन को । दर्वित जीव प्रदेश गहे जब पुदग्ल भरमन को।। भावित आस्रव भाव शुभाशुभ, निशदिन चेतन को । पाप पुण्य के दोनों करता, कारण बंधन को। 16। पन-मिथ्यात, योग-पंद्रह, द्वादश-अविरत जानो। पंचर बीस कषय मिले सब, सत्तावन मानो । मोह-भाव की ममता टारै, पर परणति खोते।
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