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श्री श्रेयांसनाथ जिन-पूजा ( रचयिता - श्री रामचन्द्र जी ) (अडिल्ल)
सभालोक-सुनि धर्म अंग-द्वादश श्रुत सारे, भये आनन्दित सबै श्रेयजिन भवि बहुततारे।
प्रशमचित्त करि कोप हन्यो वन्दू जुगकर ही, आह्वानन विधि करूँ चरण जुग - हिय में धरही। 1 ।
ऊँ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्)
ऊँ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । (स्थापनम् )
ऊँ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
(मोतीदाम छंद)
हिमन-उद्भव स्वच्छ-गंगोदकं, कनक - कुम्भ- भरेन सुगन्धिकं । जनम-मृत्यु-जरा-क्षय-कारणं, परिजजे श्रेयांस-पदाब्जकं ।।
ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। 1 ।
अगर-चन्दन-कुंकुम-द्रव्यकं, भ्रमर-कोटि भ्रमन्ति सुगन्धिनं ।
प्रचुर- दुक्ख-भवार्णव-नाशनं, परिजजे श्रेयांस-पदाब्जकं ।।
ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथ जिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। 2।
सरल सालि - अखण्ड मनोहरं, लसत सोममरीचि समानकं । सुभग-सौख्य अखैपद-कारणं, परिजजे श्रेयांस-पदाब्जकं ।।
ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद प्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा। 3।
कुसम-ओघ कल्पतरु-पावने, हरत चक्षि सुगन्ध-सुहावने।
अशुभ काम मनोद्भव-नाशनं, परिजजे श्रेयांस - पदाब्जकं ।।
ऊँ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय कामबाण - विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। 4।
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