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शालि महाअवदात मधुर अति, दीरघ कान्ति धनेरी। भरि कलधौत तने शुभ धारा, सुन्दर पुञ्ज बनेरी ॥ धर्मनाथजिन धर्मधुरन्धर, तिन पद जलरुह केरी, जजन आत्मअनुभवके कारण, कीजत आज भलेरी | ओं ह्रीं श्री धर्मनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
सुमन सुमन वच तनसो चुनि चुनि, चम्प चमेली केरे ।
ललित गुलाब तामरस फूले, औरहु फूल घनेरे।। धर्मनाथजिन धर्मधुरन्धर, तिन पद जलरुह केरी, जजन आत्मअनुभवके कारण, कीजत आज भलेरी। ओं ह्रीं श्री धर्मनाथजिनेन्द्राय कामवाणविनाशनाय पुष्पम् निर्वपामीति स्वाहा।
शुद्ध अन्न घृत मांहि पक्व करि, व्यंजन अधिक बनाऊँ। भरि धारा चितचाव बढ़ावत, सो प्रभु आगे ल्याऊँ ॥ धर्मनाथजिन धर्मधुरन्धर, तिन पद जलरुह केरी, जजन आत्मअनुभवके कारण, कीजत आज भलेरी। ओं ह्रीं श्री धर्मनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
जोति जगाय पाय चितसाता, घातित मोह अँधेरा। रतनन जटित कनकमय दीपक, कर पर धरहुँ सबेरा।। धर्मनाथजिन धर्मधुरन्धर, तिन पद जलरुह केरी,
जजन आत्मअनुभवके कारण, कीजत आज भलेरी। ओं ह्रीं श्री धर्मनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपम् निर्वपामीति स्वाहा।
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