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श्री धर्मनाथ जिन-पूजा (रचयिता - कविवर मनरंगलाल)
स्थापना- गीता छन्द पुर रतन राजा भानु जाके, सुव्रता रानी महा। सुत भये ताके धर्मनायक, वज्र अंक भला कहा।। इक्ष्वाकुवंशी हेम सा तनु, वरष दशलख आयु है। सर्वार्थसिद्धि विमान तजि, पैंताल धनुष उचाव है। दोहा- सो वृषनाथ जहाज सम, तारण को जग जीव।
करुणा करि आवो यहां, दुखरोधन शिवपीव।। ओं ह्रीं श्री धर्मनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट् (इति आह्वाननम्) ___ ओं ह्रीं श्री धर्मनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठौ तिष्ठौ ठः ठः। (स्थापनम्) ओं ह्रीं श्री धर्मनाथजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितौ भव भव वषट् (सन्निधिकरणम्)
अष्टकम् ले अतिमिष्ट अमल गंगाजल, नानागन्ध मिलाये। पुरट कुम्भ शुभ रतनजडितसो, जवन समेत धराये। धर्मनाथजिन धर्मधुरन्धर, तिन पद जलरुह केरी,
जजन आत्मअनुभवके कारण, कीजत आज भलेरी। ओं ह्रीं श्री धर्मनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलम् निर्वपामीति स्वाहा।
हुतभुकलयनप्रिया युत चन्दन, नाम अरगजा जाको। मिले कपूर सुगन्ध उड़ावत, ल्याय कटोरा ताको।।
धर्मनाथजिन धर्मधुरन्धर, तिन पद जलरुह केरी,
जजन आत्मअनुभवके कारण, कीजत आज भलेरी। ओं ह्रीं श्री धर्मनाथजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनम् निर्वपामीति स्वाहा।
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