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जय तीन जगत पति के सुनाथ, सुर गुरु नमूं मैं जोरि हाथ। जगस्वामिन के तुम स्वामि देव, जगपूज्यनि के तुम पूज्य एव।5।
तुम ज्ञाता में सर्वज्ञ ईश, तपसिन में तुम पिसी गिरीश। तुम जोगिन में जोगी महन्त, हो परम जिनेश्वर जिन कहन्त।6। जय विश्व उधारण दुख निवार, निरवांछि हितू जग के आधार। जय अक्षय श्रीराजित अपार, निरग्रन्थ महा भुवि के मझार।7। जब सची आदि करि सेव्य पांय, मैं स्तवू महान ब्रह्म-चारणाय। तुम सकल द्रव्य परजय लखान, जगपतहिं चख्य निर्मुक्ति ज्ञान।8।
तुम दरसन रविकरि तम अज्ञान, जुत पाप नसै प्रगटे कल्यान। हूँ नमूं चरण जुग जोरि पान, गणसिन्धु शरण तुम नाहि आन।9। हूँ धन्य भयो तुम निकट आय, मो जीतव धनि तुम चरण पाय। तुम धन्यनाथ किरपानिधान, चन्दराम कह दे मुक्ति थान।10।
(घत्ता) इह थुति अभिनन्दन, पाप निकन्दन, जो भवि गावै सुर धरई।
द्वै दिवि अमरेसुर, पुहमि नरेसुर, लहु पावइ शिवसुख वरई।। ऊँ ह्रीं श्रीअभिनन्दननाथ जिनेन्द्राय पूर्णा निर्वपामीति स्वाहा।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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