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तुमने कर्मों पर जय पाकर, मोती-सा जीवन पाया है। यह निर्मलता मैं भी पाऊँ, मेरे मन यही समाया है ।। यह मेरा अस्तव्यस्त-जीवन, इसमें सुख कहीं न पाता हूँ। मैं भी अक्षय-पद पाने को, शुभ अक्षत तुम्हें चढ़ाता हूँ। ॐ ह्रीं श्री पाश्वनाथ जिनेन्द्राय अक्षयपद प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा । ३ ।
अध्यात्मवाद के पुष्पों से, जीवन फुलवारी महकाई। जितना-जितना उपसर्ग सहा, उनी उतनी दृढ़ता आई।
मैं इन पुष्पों से वंचित हूँ, अब इनको पाने आया हूँ। चरणों पर अर्पित करने को, कुछ पुष्प संजोकर लाया हूँ।
ॐ ह्रीं श्री पार्शवनाथ जिनेन्द्राय कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।४।
जय पाकर चपल-इन्द्रियों पर, अंतर की क्षुधा मिटा डाली। अपरिग्रह की आलोक-शक्ति, अपने अंदर ही प्रगटा ली || भटकाती फिरती क्षुधा मुझे, मैं तृप्त नहीं हो पाया हूँ। इच्छाओं पर जय पाने को, मैं शरण तुम्हारी आया हूँ।।
ॐ ह्रीं श्री पार्शवनाथ जिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।५।
अपने अज्ञान - अंधेरे में, वह कमठ फिरा मारा-मारा। व्यन्तर-विमानधारी था पर, तप के उजियारे से हारा ||
मैं अंधकार में भटक रहा, उजियारा पाने आया हूँ। जो ज्योति आप में दर्शित है, वह ज्योति जगाने आया हूँ ।।
ॐ ह्रीं श्री पार्शवनाथ जिनेन्द्राय मोहांधकार - विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।६।
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