________________
तुमने तप के दावानल में, कर्मों की धूप जलाई है। जो सिद्ध-शिला तक जा पहुँची, वह निर्मल-गंध उड़ाई है। मैं कर्म-बंधनों में जकड़ा, भव-बंधन से घबराया हूँ। सु-कर्म दहन के लिए तुम्हें, मैं धूप चढ़ाने आया हूँ।। ॐ ह्रीं श्री पार्शवनाथ जिनेन्द्राय अष्टकर्म - दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।७।
तुम महातपस्वी शांतिमूर्ति, उपसर्ग तुम्हें न डिगा पाये। तप के फल ने पद्मावति अरु, इन्द्रों के आसन कम्पाये ॥
ऐसे उत्तम-फल की आशा मैं, मन में उमड़ी पाता हूँ।
ऐसा शिव-सुख फल पाने को, फल की शुभ भेंट चढ़ाता हूँ।
ॐ ह्रीं श्री पाश्वनाथ जिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।८।
संघर्षों में उपसर्गों में तुमने, समता का भाव धरा। आदर्श तुम्हारा अमृत-बन, भक्तों के जीवन में बिखरा॥ मैं अष्टद्रव्य से पूजा का शुभ- थाल सजा कर लाया हूँ। जो पदवी तुमने पाई है, मैं भी उस पर ललचाया हूँ।
ॐ ह्रीं श्री पार्शवनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा । ९ । पंचकल्याणक - अर्ध्यावली
बैशाख-कृष्ण-दुतिया के दिन, तुम वामा के उर में आये।
श्री अश्वसेन नृप के घर में, आनंद भरे मंगल छाये ॥
ॐ ह्रीं बैशाख- कृष्ण - दुतियायां गर्भमंगल-मंडिताय श्री पार्शवनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा । १ ।
जब पौष-कृष्ण-एकादशि को, धरती पर नया प्रसून खिला । भूले भटके भ्रमते जग को, आत्मोन्नति का आलोक मिला।
ॐ ह्रीं पौषकृष्ण एकादश्यां जन्ममंगल-मंडिताय श्री पार्शवनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा | २|
641