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श्री अहिच्छत्र-पाश्वनाथ- जिन-पूजा (रचयिता - कल्याण कुमार शशि"
हे पाश्वनाथ करुणानिधान महिमा महान् मंगलकारी।
शिवभारी सुखभंडारी सर्वज्ञ सुखारी त्रिपुरारी॥ तुम धर्मसेत करुणानिकेत आनंदहेत अतिशय धारी। तुम चिदानंद आनंदकंद दुःख-द्वंद-फंद संकटहारी।।
आवाहन करके आज तुम्हें अपने मन में पधराऊँगा। अपने उर के सिंहासन पर गद-गद हो तुम्हें बिठाऊँगा। मेरा निर्मल-मन टेर रहा हे नाथ ! हृदय में आ जाओ।
मेरे सूने मन-मंदिर में पारस-भगवान् समा जाओ।। ॐ ह्रीं श्रीपार्शवनाथ जिनेन्द्र ! अत्र अवतरत अवतरत संवौषट्। ( इति आह्वाननम्)।
ॐ ह्रीं श्रीपाश्वनाथ जिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः (संस्थापनम्)। ॐ ह्रीं श्रीपाश्वनाथ जिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
भव-वन में भटक रहा हूँ मैं, भर सकी न तृष्णा की खाई। भवसागर के अथाह दुःख में, सुख की जल-बिंदु नहीं पाई। जिस भाँति आपने तृष्णा पर, जय पाकर तृषा बुझाई है।
अपनी अतृप्ति पर अब तुमसे, जय पाने की सुधि आई है। ॐ ह्रीं श्रीपाश्वनाथजिनेन्द्राय जन्म-जरा-मृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।१।
क्रोधित हो क्रूर कमठ ने जब, नभ से ज्वाला बरसाई थी। उस आत्मध्यान की मुद्रा में, आकुलता तनिक न आई थी। विघ्नों पर बैर-विरोधों पर, मैं साम्यभाव धर जय पाऊँ।
मन की आकुलता मिट जाये, ऐसी शीतलता पा जाऊँ। ॐ ह्रीं श्री पार्शवनाथ जिनेन्द्राय संसार ताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।२।
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