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श्रीमहावीर जिन-पूजा (रचयिता - श्री रामचन्द्र जी)
(अडिल्ल) बोध शुद्ध परकासक इक प्रभु भान ही, लोक-अलोक-मझारि और नहीं आन ही।
प्रणम श्रीवर्द्धमान वीर के पाय ही,
आह्वानन विधि करूँ विमल गुण ध्याय ही।। ऊँ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्)
ऊँ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ऊँ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
(गीता छन्द) कर्पूर-वासित शरद-शशि-सम धवल हार तुषारतें। मुनि चित्तसौं अति विमल सौरभि, रवे मधुकर प्यारत।। सो हिमन-उद्भव कुम्भ मणिमय, नीर भरि तृष छेय ही।
श्रीवीरनाथ जिनेन्द्र के जुग, चरण चरचूँ ध्येय ही।1। ऊँ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
मलय नीर कपूर शीतल, वरण पूरण इन्द ही। आमोद बहुलि समीरतें, दिग रवै मधुकर-वृन्द ही।। सो द्रव्य भवतप नाश कारण, कनक-भाजन लेय ही।
श्रीवीरनाथ जिनेन्द्र के जुग, चरण चरचूँ ध्येय ही।।2।। ऊँ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
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