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मगसिर दशमी शुकल ही, षट्खण्ड राज-महान।
तृणवत् तजि तप वन धर्यो, जजूं चरन धरि ध्यान।। ऊँ ह्रीं मार्गशीर्षशुक्ला-दशम्यां तपोमंगल-मंडिताय श्रीअरनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।3।
कार्तिक द्वादशि शुकल ही, घाति-कर्म हनि ज्ञान।
लह्यौ धर्म-दुविधा कह्यो, जजहूँ ज्ञानकल्यान। ऊँ ह्रीं कार्तिकशुक्ला-द्वादश्यां ज्ञानमंगल-मंडिताय श्रीअरनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।4।
चैत अमावश शिव गये, सर्व कर्म हनि देव।
चतुरनिकाय सुरा जजे, मैं जजहूँ वसु-भेव।। ऊँ ह्रीं चैत्रकृष्णा-अमावस्यां मोक्षमंगल-मंडिताय श्रीअरनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।5।।
जयमाला (दोहा) अर-जिनके पद-कमल-जुग, बन्दूँ शीश नवाय। देहु सुमति विनती रचूँ, पढ़ें पाप नशि जाय।।1। अर अराति-वसु हानि के, शिवतिय के पति थाय। सुख-अनन्त ता संग लहैं, बन्दू गुण मन-लाय।।
बुध हो, अर-जिन ध्यावौ भावसोंजी।।2।। ध्यायत शिव-पदवी लहै, नर-पद की इह बात। भृत्य होय सुरपति रहै, देखों फल अवदात।। बुध हो, अर-जिन ध्यावौ भावसोंजी।। 3॥
हस्तनागपुर मैं न, पिता सुदर्शन-पाय। मात सुमित्रा-कूखि मैं, आए त्रिभुवन-राय।। बुध हो, अर-जिन ध्यावौ भावसोंजी।। 4।। फागुन सुद तृतिया को, सुरपति गर्भकल्यान। रतन-वृष्टि धनपत करी, षट् नव मास महान।। बुध हो, अर-जिन ध्यावौ भावसोंजी।। 5।।
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