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संसार-उदधि अपार तारन भक्ति प्रभु तुमरी सही। शुभ सालि पुंज जिनाग्र करिहूँ लहूँ वसुगुण वसुमही।। श्री चन्द्रप्रभ दुतिचन्द को पद-कमल-नख-ससि लग रह्यो।
आतंकदाह निवारि मेरी, अरज सुन मैं दुख सह्यो।। ऊँ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।31
अति सुभट मार प्रचंड सरतें हने सुर-नर पशु सबै। शुभ कुसुमस्यौं पद पूजिहूँ जिन हरो मनमथ दुख अबै।। श्री चन्द्रप्रभ दुतिचन्द को पद-कमल-नख-ससि लग रह्यो।
आतंकदाह निवारि मेरी, अरज सुन मैं दुख सह्यो।। ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय कामबाण-विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।4।
यह क्षुधा मोकू दहैं नितही, नेक सुख नाहिं पावहीं।
चरु मिष्टा पद पूजिहूँ जिन! क्षुधारोग नसावहीं।। श्री चन्द्रप्रभ दुतिचन्द को पद-कमल-नख-ससि लग रह्यो।
आतंकदाह निवारि मेरी, अरज सुन मैं दुख सह्यो।। ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।5।
अति मोहतम मम ज्ञान ढक्यो, स्व-पर पद न हिं बेवहीं।
तुम चरण पूँजू रतन-दीपक, करो तमको छेवही।। श्री चन्द्रप्रभ दुतिचन्द को पद-कमल-नख-ससि लग रह्यो।
आतंकदाह निवारि मेरी, अरज सुन मैं दुख सह्यो।। ऊँ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।6।
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