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श्रीचन्द्रप्रभ जिन-पूजा (रचयिता - श्री रामचन्द्र जी )
(अडिल्ल)
शुभ अतिशय चौंतीस प्रातिहारिज अधिका ही, अनन्त चतुष्टयजुक्त दोष अष्टादस नाहीं ।
आह्वानन विधि करूं नाय सिर सुधकरि मनही, लोक मोहतम-हरन दीप अद्भुत ससि जिनही । 1 ।
ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम् )
ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम् ) ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
(गीता छन्द) हिमसैल निरगत तोय सीतल मधुर सुरगण की परेँ।
भरि भृंग जिनवर-चरण आगैं धार दे भव-मृति हरें।।
श्री चन्द्रप्रभ दुतिचन्द को पद -कमल-नख- ससि लग रह्यो। आतंकदाह निवारि मेरी, अरज सुन मैं दुख सह्यो।।
ऊँ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।1।
भवताप-दाह दहन्त मोकूँ एक छिन न विसारही। घनसार मलय थकी जिनेसुर पूजिहूँ दुख टारही|
श्री चन्द्रप्रभ दुतिचन्द को पद -कमल-नख- ससि लग रह्यो ।
आतंकदाह निवारि मेरी, अरज सुन मैं दुख सह्यो ।
ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। 2 ।
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