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अथवा जबलौं शिव लहौ नाहिं, तबलो ये तो नित ही लहाहिं । भव-भव श्रावक-कुल जनम-सार, भव-भव सतमति संतसंग धार। 11। भव-भव निज-आतम-तत्त्वज्ञान, भव भव तप-संयम - शील- दान । भव-भव अनुभव नित चिदानंद, भव-भव तुम आगम हे जिनंद। 12 । भव-भव समाधि-जुत-मरन सार, भव-भव व्रत चाहों अनागार। यह मोकों हे करुणानिधान, सब जोग मिला आगम-प्रमान | 13। जबलों शिव-सम्पति लहों नाहिं, तबलों मैं इनको नित लहाँ हि । यह अरज हिये अवधारि नाथ, भवसंकट हरि, कीजे सनाथ | 14 | (छंद-घत्तानंद)
जय दीनदयाला, वर-गुनमाला, विरदविशाला सुख - आला।। मैं पूजों ध्यावों शीश नमावों, देहु अचल-पदकी चाला। 15 ऊँ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय जयमाला - पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(छंद-रोड़क)
कुंथु जिनेसुर पादपद्म जो प्रानी ध्यावें । अलि-सम कर अनुराग, सहज सो निज-निधि पावें।। जो बांचें सरधहें, करें अनुमोदन पूजा। वृन्दावन तिंह पुरुष-सदृश, सुखिया नहिं दूजा ।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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