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श्री अरहनाथ जिन-पूजा (रचयिता - श्री वृन्दावन)
(छप्पय छन्द) तप-तुरंग-असवार, धार तारन-विवेक कर। ध्यान-शुकल-असि-धार शुद्ध-सुविचार-सुबखतर।। भावन-सेना, धर्म-दशों सेनापति थापे। रतन-तीन धरि सकति, मंत्रि-अनुभो निरमापे।।
सत्तातल मोह-सुभटि धुनि,त्याग-केतु-शत अग्र धरि।
इह-विध समाज सज राज को, अर-जिन जीते कर्म-अरि।। ऊँ ह्रीं श्रीअरहनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्)
ऊँ ह्रीं श्रीअरहनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ॐ ह्रीं श्रीअरहनाथजनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
अष्टक (छंद-त्रिभंगी) कन-मनि-मय झारी, दृग-सुखकारी, सुर-सरितारी नीर भरी। मुनिमन-सम उज्ज्वल, जनम-जरा-दल, सोलैं पद-तल धारकरी। प्रभु दीनदयालं, अरि-कुल-कालं, विरद विशालं सुकुमालं।
हरि मम जंजालं, हे जगपालं, अरगुन-मालं, वरभाल।।1। ऊँ ह्रीं श्रीअरहनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।।।
भव-ताप-नशावन, विरद सुपावन, सुनि मनभावन, मोद भयो। तारौं घसि बावन, चंदन-पावन, तुमहिं चढ़ावन, उमगि अयो।। प्रभु दीनदयालं, अरि-कुल-कालं, विरद विशालं सुकुमालं।
हरि मम जंजालं, हे जगपालं, अरगुन-मालं, वरभाल।। 2।। ऊँ ह्रीं श्रीअरहनाथजिनेन्द्राय भवाताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।2।
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