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सुदी वैशाख सु एकम नाम, लियो तिहि द्यौस अभय-शिवधाम।
जजे हरि हर्षित मंगल गाय, समर्चतु हों तुहि मन-वच-काय।। ॐ ह्रीं वैशाखशुक्ल-प्रतिपदि मोक्षमंगल-प्राप्ताय श्रीकुन्थुनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।5
जयमाला (अडिल्ल छन्द) षट्खंडन के शत्रु राजपद में हने। धरि दीक्षा षटखंडन पाप तिन्हें दनें।। त्यागि सुदरशन चक्र धरम चक्री भये। करमचक्र-चकचूर सिद्ध दिढ-गढ़ लये।1।
ऐसे कुंथु जिनेश तने पदपद्म को। गुन-अनंत-भंडार महासुख-सद्मको।। पूजों अरघ चढ़ाय पूरणानंद हो। चिदानंनद अभिनंदन इन्द्रगन-वंद हो।1।
(पद्धिरि छन्द) जय-जय जय-जय श्रीकुंथुदेव, तुम ही ब्रह्मा हरि त्रिंबुकेव। जय बुद्धि विदांबर विष्णु ईश, जय रमाकांत शिवलोक शीश।3।
जय दया-धुरंधर सृष्टिपाल, जय-जय जगबंधु सुगुन-माल। सरवारथ-सिद्ध विमान छार, उपजे गजपुर में गुन-अपार।4। सुर-राज कियो गिर न्हौन जाय, आनंद-सहित जुत-भगतिभय। पुनि पिता सौंपि कर मुदित अंग, हरि तांडव-निरत कियो अभंग।5।
पुनि स्वर्ग गयो तुम इत दयाल, वय पाय मनोहर प्रजापाल। षट्खंड विभौ भोग्यो समस्त, फिर त्याग जोग धार्यो निरस्त।6। तब घाति-घात केवल उपाय, उपदेश दियो सब-हित जिनाय। जाके जानत भ्रम-तम विलाय, सम्यक्दर्शन निर्मल लहाय।7।
तुम धन्य देव किरपा-निधानु, अज्ञान-क्षमा-तमहरन भानु। जय स्वच्छगुनाकर शुक्त सुक्त, जय स्वच्छ सुखामृत भुक्ति मुक्त।8।
जब भौ-भय-भंजन कृत्यकृत्य, मैं तुमरो हौं निज भृत्य भृत्य। प्रभु अशरन-शरन अधार धार, मम विघ्न-तूलगिरि जार-जार।9। जय कुनय-यामिनी सूर-सूर, जय मन-वाँछित-सुख पूर-पूर। मम करमबंध दिढ चूर-चूर, निजसम आनंद दे भूर-भूर।10।
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