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भये शान्त-स्वभवी तीन लोक, जीते प्रभु ने हूये अशोक।।8। पिंगला देता भूषक अनेक, तसु आस छांडि किय नगन भेक। यह प्रभु की प्रभुताई मनोग, कर इन्द्रीवश शुभ धरत योग।।9।।
निधि संख कहावत जो प्रधान, वादित्र देत सो वे प्रमान। सो छाँड़ी जस पटहा बजाय, जय धन्य धन्य स्वामी सहाय।।10।
निधि सर्व-रत्न नामा मनोग, बहु रतनन देवे को सुयोग। तिहि कांच खंडवत् त्याग दीन, निजहिय में धारत रतन तीन।।11।।
इन आदि अनेकन राज्य अंग, द्वै तिनसों विरकत सा निसंग। अध ऊध्व मध्य परताप जास, छिटको रवि तें अधिको प्रकाश।।12।।
जय जय साताकारी जिनन्द, छवि ऊपर वारों कोटि चन्द। जय चिन्तित अध्यादिक सुदेत, चिन्तामणि इव करुणा समेत।।13।
जय पाप-प्रहारी अगम-पन्थ, जय शिव-तिय के आछे सुकन्ध। जय गुण-निधान कल्याण-रूप, जय तीन लोक जे भले भूप।।14।
हे चतुरानन प्रणमों सुतोहि, करिये प्रभु साता-रूप मोहि। यह अरज हमारी मान लेहु, मो तनि तुम अपनी दृष्टि देहु।।15।।
अडिल्ल छन्द अरह जिनेन्द्र तनी शुभ जयमाला बनी, जो धारत निजकण्ठ होय शोभ घनी। शिव-रमणी तसु आय अलिंगे आपही,
मनरंग स्वर्ग श्रिया की, का कथनी कही।। ओं ह्री श्री अरहनाथजिनेन्द्राय सर्वसुखप्राप्तये पूर्णार्यम्।
दोहा यामिनीश भगवान मुख, पद-कुवलय युत मोद। लखि लखि भविक चकोर अलि, सुख लीजो भरि गोद।। ओं ह्रीं श्री अरहनाथ जिनेन्द्राय नमः।(इस मंत्र की जाप्य देना)
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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