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श्री मल्लिनाथ जिन-पूजा (रचयिता - कविवर मनरंगलाल)
स्थापना- गीता छन्द नृप कुम्भ मिथिला, पुरी अद्भुत, मातृनाम प्रजावती। ता पुत्र अपराजित विमानहिं, त्यागि मल्लि भये जती।। पच्चीस धनुष उचाव लक्षण, कुम्भ कनकप्रभा बनी। आऊष पचपन सहस वरष, इक्ष्वाकु-वंश-शिरोमनी।।
दोहा कुम्भा-चिन्ह धारी प्रभो, कुम्भ-नृपति-सुत आज।
आय चरन धारी इहां, जो सुधरे मम काज।। ओं ह्रीं श्री मल्लिनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट् (इति आह्वाननम्)
ओं ह्रीं श्री मल्लिनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठौ तिष्ठौ ठः ठः। (स्थापनम्) ओं ह्रीं श्री मल्लिनाथजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितौ भव भव वषट् (सन्निधिकरणम्)
वसन्ततलिका छन्द आछो प्रवाह गंगा-जल नीर तासों, झारी भराय शुभ रुक्मतनीय जासों। श्रीमल्लिनाथ जगदीश निशल्य कारी, पूजों सदा जजत इन्द्र सदेव धारी।। ओं ह्रीं श्री मल्लिनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलम् निर्वपामीति स्वाहा।
श्री चन्दनादि बहु गन्ध मिलाय धारी। गूंजे द्विरेफ तसु ऊपर पुञ्ज भारी।। श्रीमल्लिनाथ जगदीश निशल्य कारी, पूजों सदा जजत इन्द्र सदेव धारी।। ओं ह्रीं श्री मल्लिनाथजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनम् निर्वपामीति स्वाहा।
जो चन्द्रमण्डल लजावत शुद्ध शाली। खण्डं बिना विमल दीर्घ सु साजि थाली।। श्रीमल्लिनाथ जगदीश निशल्य कारी, पूजों सदा जजत इन्द्र सदेव धारी॥ ओं ह्रीं श्री मल्लिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षताम् निर्वपामीति स्वाहा।
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