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साँगानेर के इस वैभव से, पास राजा जलते थे। ईर्ष्याभाव भड़क उठा जब, धावा इस पर बोल दिया। धन-वैभव सब लूट मार कर, साँगानेर वीरान किया।। बाबा तेरे मंदिर को भी, तहस नहस करने आये। काँप गये देवों के आसन, यक्ष देव झट से आये। सारी सेना कीलित करके, तेरा अतिशय दिखा दिया। क्षमा-याचना की राजा ने, चरण-कमल में नमन किया।
सारी सेना मुक्त हुई तब बाबा का जयकार किया। संवत् सोलह सौ मंगल था साँगानेर आबाद हुआ ।। साँगा नृप ऋषभदेव को इष्ट देव स्वीकार किया। उद्धार करूँगा इस नगरी का, साँगा ने संकल्प किया। साँगा नृप 'चाँदी का श्रीफल कार्यक्रमों पर भिजवाता । बाबा का आशीष प्राप्त कर कार्य शुरू तब करवाता।। संग्रामपुरी का नाम बदल साँगा ने साँगावती किया। साँगावती भी नाम सुधारा, साँगानेर अब नाम दिया।। शदी आठवीं का मंदिर यह, अद्भुत और निराला है। कला पूर्ण बाहर भीतर है, सात मंजिलों वाला है। संवत सात शतक की घटना, दिव्य महा गजरथ आया। आदिनाथ की प्रतिमा को वह बिना सारथी के लाया ।। नगर द्वार पर रुका नहीं रथ, यहाँ रुका सहसा आकर। संघजी रथ से प्रतिमा को मंदिर में लाये जाकर || अदृश्य हुआ देवों का गजरथ, नभ से वाणी गूँज गई। भगवानदास संघी श्रावक ने, वाणी उर में धार लई || बहु बड़ी थी यहाँ बावड़ी, जिस पर जीर्ण-शीर्ण मंदिर | कहलाता था तल्ले वाला, तलघर थे वापी अन्दर। वापी को बंद किया संघी ने, तल पर मंदिर बनवाते । संवत् आठ शतक पन्द्रह में, संघी प्रतिष्ठा करवाते ।।
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