________________
सन उन्नीस सौ तैंतीस में, आचार्य शांतिसागर आये। आया स्वप्न एक दिन गुरु को गुफा रहस्य तब लख पाये।।
भूरे रंग का सर्प वहाँ है, यक्ष सुरक्षित बतलाये। तीजे तल तक गुरु जी पहुँचे, प्रथम जिनालय ले आये।।
सन् उन्नीस सौ चौरावन में, पूज्य सुधासागर आये। महातपस्वी, महाध्यानी हैं, जैनधर्म ध्वज फहराये।। बालयति हैं भावलिंगी हैं, मुनिपुंगव गुरु कहलाते।
साँगानेर वाले बाबा को अपने उर में पधराते।। गम्भीर धैर्य थे क्षुल्लक संघ में, मन ही मन में हषाये। सन् उन्नीस सौ निन्नायानवें में पुनः सुधासागर आये।। तीजी मंजिल से आगे तक, कोई अब तक नहीं गया। लेकिन सुधासागर के तप से यक्ष द्वार सब खोल गया।।
चौथी तल में जाकर गुरुजी, दूजा चैत्यालय लाये। प्रतिमा थी बत्तीस रत्न की, प्रथम बार गुरुजी लाये।। दशों लाख की जनता थी जब गुरुराज प्रतिमा लाये। रत्नमयी प्रतिमायें लखकर, जन-जन के मन हषाये।। शेष अभी हैं अनगिनत प्रतिमा, सुधासिन्धु ने बतलाई।
भूरे रंग का नागराज है, रास्ता उसने दिखलाई।। संघी मंदिर के उद्धारक, सुधासिन्धु कहलाते है।। वास्तुसार के ज्ञाता हैं मुनि, वास्तुदोष हटाते हैं।। कायाकल्प हुई मंदिर की, भक्तों के मन भाती है। चौबीसी ऊपर मंजिल में, सबके मन हर्षाती है।। इन्द्र शिरोधर मानस्तम्भ है, चतुर्मुखी प्रतिमा बैठी। दिग् चैत्यालय बने हुए हैं, फेरी में प्रतिमा बैठी।। मध्य विराजे पार्श्वनाथ त्रय, संकटमोचन हारी हैं। सौम्य मूर्ति है फनावली है, चिन्तामणी कहलाती हैं।। साँगानेर के आदिनाथ के, और अनेकों अतिशय हैं।
432