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श्री चन्द्रप्रभ जिन-पूजा (सोनागिर) (रचयित्री - आर्यिका स्वस्ति मति)
स्थापना
स्वर्णों सम सोनागिरि पर्वत, चंदा प्रभु जिसमें रहते है।। चंदा की ज्ञान किरण फैली, तपसी जन ऐसा कहते हैं।।
श्री नंग-अनंग कुमार मुनि, निर्वाणस्थली बना गये। मुनिराजों ने आ तप कीना, सिद्धालय को वे चले गये।।
आह्वानन करने आया हूँ, आओ तिष्ठो मेरे जिनवर।
मम हृदय कमल का आसन है, आओ-आओ मेरे जिनवर।। ॐ ह्रीं सोनागिर-विराजित-चन्द्रप्रभजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्)
ऊँ ह्रीं सोनागिर-विराजित-चन्द्रप्रभजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ऊँ ह्रीं सोनागिर-विराजित-चन्द्रप्रभजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
भोगों को भोगा हे प्रभुवर, इसमें ही हृदय लुभाया है। भौतिक वस्तु में सुख माना, उसमें ही मन हर्षाया है।। इस जन्म मरण से छू, मैं, जल चरणों में मैं ले आया।
सच्ची श्रद्धा सम्यग्दर्शन, पाने को यह मन ललचाया।। ऊँ ह्रीं सोनागिर-विराजित-चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय
शनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।।।
संतृप्त हृदय प्रभु रहता है, चंदन से शीतल ना होता। मैं नित्य कषायें करता हूँ, पछताता और जीवन खोता।। चंदा सम शीतलता पाऊं, शीतल चंदन मैं ले आया।।
सच्ची श्रद्धा सम्यग्दर्शन, पाने को यह मन ललचाया।। ऊँ ह्रीं सोनागिर-विराजित-चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।2।
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