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हो अंदर बाहर आप शुद्ध, अक्षत समगुण प्रभु तेरे हैं। संसार भटकता मैं फि रता, खाये गतियों के फेरे हैं।। अक्षत सम धवल रूप पाऊँ, शुभ अक्षत लेकर मैं आया।।
सच्ची श्रद्धा सम्यग्दर्शन, पाने को यह मन ललचाया।। ॐ ह्रीं सोनागिर-विराजित-चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।।
बागों में फूल घनेरे हैं, पर तुम सम पुष्प न कोई है। सब दोष-रहित अफसोस-रहित, आत्मा अनादि से सोई है।।
भावों की शुद्धी हो जावे, पुष्पों की माला मैं लाया।।
सच्ची श्रद्धा सम्यग्दर्शन, पाने को यह मन ललचाया।। ऊँ ह्रीं सोनागिर-विराजित-चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय कामबाण-विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।4।
नाना व्यंजन खाये मैंने, आतम इससे ना शान्त हुआ। आतम का भोजन दिया नहीं, जिससे जीवन-पथ भ्रांत हुआ।। यह नागिन क्षुधा मिटाने को, नैवेद्य बनाकर मैं लाया।।
सच्ची श्रद्धा सम्यग्दर्शन, पाने को यह मन ललचाया।। ऊँ ह्रीं सोनागिर-विराजित-चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।51
दीपक जग को रोशन करता, पर आतम तम ना मिटता है। जगे अंतरतम में ज्ञान दीप, कर्मों का राजा पिटता है।। उजियाला अंतर में फैले, जड़ दीपक लेकर मैं आया।।
सच्ची श्रद्धा सम्यग्दर्शन, पाने को यह मन ललचाया।। ॐ ह्रीं सोनागिर-विराजित-चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।6।
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