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दिक्-चक्र गन्धित होत जाकर, धूप दश-अंगी कही । सो लाय मन-वच-काय शुद्, लगाय कर खेऊँ सही ॥ मन्वादि चारण-ऋद्धि-धारक, मुनिन की पूजा करूं । ता करें पातक हरें सारे, सकल आनन्द विस्तरूं ॥ ॐ ह्रीं श्रीमन्वादिसप्तर्षिभ्यो अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।
बर दाख खारक अमित प्यारे, मिष्ट चुष्ट चुनायकैं । द्रावडी दाडिम चारु पुंगी, थाल भर-भर लायकें ॥ मन्वादि चारण-ऋद्धि-धारक, मुनिन की पूजा करूं ।
ता करें पातक हरें सारे, सकल आनन्द विस्तरूं ॥ ॐ ह्रीं श्रीमन्वादिसप्तर्षिभ्यो मोक्ष फल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ।
जल गन्ध अक्षत पुष्पचरुवर, दीप धूप सु लावना। फल ललित आठौं द्रव्य मिश्रित, अर्घ्य कीजे पावना ॥ मन्वादि चारण-ऋद्धि-धारक, मुनिन की पूजा करूं ।
ता करें पातक हरें सारे, सकल आनन्द विस्तरूं ॥ ॐ ह्रीं श्रीमन्वादिसप्तर्षिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
जयमाला
(घत्ता)
वन्दूँ ऋषिराजा, धर्म-जहाजा, निज-पर- काजा करत भले । करुणा के धारी, गगन-बिहारी दुख अपहारी, भरम दले ॥ काटत जम-फन्दा, भवि-जन वृन्दा, करत अनन्दा चरण में I जो पूजैं ध्यावैं, मंगल गावैं, फेर न आवैं भव-वन में ॥
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