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(पद्धरि छन्द) जय श्रीमनु मुनिराज महन्त, त्रस-थावर की रक्षा करन्त । जय मिथ्या-तम-नाशक पतंग, करुणा रस-पूरित अंग-अंग ॥ जय श्रीस्वरमनु कलंकरूप, पद-सेव करत नित अमर-भूप । जय पञ्च अक्ष जीते महान, तप तपत देह कंचन-समान । जय "निचय" सप्त तत्वार्थ भास, तप-रमातनों तनमें प्रकाश । जय विषय-रोध सम्बोध भान, परणति के नाशन अचल ध्यान ॥ जय जयहिं सर्वसुन्दर दयाल, लखि इन्द्रजालवत जगत-जाल ।
जय तृष्णाहारी रमण राम, निज परिणति में पायो विराम ॥ जय आनन्दघन कल्याणरूप, कल्याण करत सबकौ अनूप । जय मद-नाशन जयवानदेव, निरमद विरचित सब करत सेव ॥
जय जयहिं विनयलालस अमान, सब शत्रु मित्र जानत समान । जय कृशित-काय तप के प्रभाव, छवि छठा उड़ति आनन्द दाय । जय मित्र सकल जग के सुमित्र, अनगिनत अधम कीने पवित्र । जय चन्द्र-वदन राजीव नैन, कबहूँ विकथा बोलत न बैन । जय सातों मुनिवर एक संग, नित गगन-गमन करते अभंग। जय आये मथुरापुर मझार, तहँ मरी रोग को अति प्रचार ॥ जय जय तिन चरणनि के प्रसाद, सब मरी देवकृत भई बाद । जय लोक करे निर्भय समस्त, हम नमत सदा नित जोड़ हस्त ॥
जय ग्रीष्म-ऋतु पर्वत मझार, नित करत अतापन योगसार । जय तृषा-परीषह करत जेर, कहूँ रंच चलत नहिं मन सुमेर ।
जय मूल अठाइस गुणनधार, तप उग्र तपत आनन्दकार । जय वर्षा-ऋतु में वृक्ष तीर, तहं अति शीतल झेलत समीर ॥ जय शीत-काल चौपट मझार, कै नदी सरोवर तट विचार । जय निवसत ध्यानारूढ़ होय, रंचक नहिं भटकत रोय कोय ॥
जय मृतकासन वज्रासनीय, गौदूहन इत्यादिक गनीय ।
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