________________
कलपपादप तें उपजे भये, परमगन्ध प्रसारित ते लये।
हरषपूर्वक लीजे हाथ में, करि त्रिशूल जजों रिषिनाथ मैं।। ओं ह्रीं श्री ऋषभनाथजिनेन्द्राय कामवाणविनाशनाय पुष्पम् निर्वपामीति स्वाहा ।
चतुर चारु पचावत भाव सों, घृतसुपूरित अद्भुत चावसों।
अमियमय लड़वा धरि हाथ में, करि त्रिशुद्ध जजों रिषिनाथ मैं।। ओं ह्रीं श्री ऋषभनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
रतन दीपक देत उदोत ही, दशदिशा उजियार सो होत ही।
प्रभु तने लखि धरि सुहाथ में, करि त्रिशुद्ध जजों रिषिनाथ मैं। ओं ह्रीं श्री ऋषभनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपम् निर्वपामीति स्वाहा ।
उठत धूम घटा चहुं ओर तें, भ्रमतभूरि अली सबछोरतें। दहन धूप लिये इमि हाथ में, करि त्रिशुद्ध जजों रिषिनाथ मैं।। ओं ह्रीं श्री ऋषभनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपम् निर्वपामीति स्वाहा ।
मधुरसा रसना सुखदाय जो, क्रमुक श्रीफल सुन्दरलायसो। ___ इमिफलौघ लिये शुभ हाथ में, करि त्रिशुद्ध जजों रिषिनाथ मैं। ओं ह्रीं श्री ऋषभनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलम् निर्वपामीति स्वाहा ।
करि सु ये इकठो दरब सवै, धरत भाजनमें अतिसोफवै।
अरघ सुन्दर लेय सो हाथ में, करि त्रिशुद्ध जजों रिषिनाथ मैं।। ओं ह्रीं श्री ऋषभनाथजिनेन्द्राय अनध्य पद प्राप्तये अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
264