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श्री ऋषभदेव जिन-पूजा (रचयिता - कविवर मनरंगलाल )
स्थापना- गीता छन्द नगरी अयोध्या नाभिराजा, पिता मरुदेवी जने। इक्ष्वाकुवंश शरीर सुवरण, पाँचसौ धनु सोहने।। पूरब चैरासी लाख आर्वल जिह्न वृषभ गनीजिये। सर्वार्थसिद्धि विमानतें चय, आदिनाथ कहीजिये।।
दोहा सो आदीश्वर जगतपति, सब जीवन रखपाल।
मुकतिरमा के कन्थवर, आओ यहां विशाल।। ओं ह्रीं श्री ऋषभनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्) ____ओं ह्रीं श्री ऋषभनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठौ तिष्ठौ ठः ठः। (स्थापनम्) ओं ह्रीं श्री ऋषभनाथजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितौ भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
अष्टक द्रुतविलंबित छन्द परम नीर सुगन्ध नियोजितं, मधुर वाणिन भौंर सुगुंजितं।
कनकभाजन ले भरि हाथ में, करि त्रिशुद्ध जजों रिषिनाथ मैं।। ओं ह्रीं श्री ऋषभनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलम् निर्वपामीति स्वाहा ।
चन्दन बावन वाम घसो मयो, हिमपरा शुभमिश्रित सोलयो।
कनकपात्र भरों धरि हाथ में, करि त्रिशुद्ध जजों रिषिनाथ में। ओं ह्रीं श्री ऋषभनाथ जिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनम् निर्वपामीति स्वाहा ।
अमल अक्षत राजन भागके, गुलक लज्जित तज्जित शोक के।
सुभग भाजन में ले हाथ में, करि त्रिशुद्ध जजों रिषिनाथ में।। ओं ह्रीं श्री ऋषभनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षताम् निर्वपामीति स्वाहा ।
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