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माघ-शुकल-तिथि-द्वादशि के दिन, तीन-लोक-हितकार।
अभिनंदन आनंदकंद तुम, लीन्हों जग-अवतार।।
एक महूरत नरकमाँहि हू, पायो सब जिय चैन। कनक-वरन कपि-चिह्न-धरन, पद जजों तुम्हें दिन रैन।।
ॐ ह्रीं माघशुक्ल-द्वादश्यां जन्म मंगल-प्राप्ताय अभिनंदननाथ जिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।2।
साढ़े-छत्तिस-लाख सु-पूरब, राजभोग वर भोग। कछु कारन लखि माघ-शुकल-द्वादशि को धार्यो जोग।। षष्टम् नियम समापत करि लिय, इंद्रदत्त-घर छीर। जय-धुनि पुष्प-रतन-गंधोदक-वृष्टि सुगंध-समीर।।
ॐ ह्रीं माघशुक्ल-द्वादश्यां तपोमंगल-प्राप्ताय श्रीअभिनंदननाथ जिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।31
पौष-शुक्ल-चौदशि को घाते, घातिकरम दुःखदाय।
उपजायो वरबोध जास को, केवल नाम कहाय।। समवसरन लहि बोधि-धरम कहि, भव्य जीव-सुखकंद। मोकों भवसागर” तारों, जय जय जय अभिनंद।।
ॐ ह्रीं पौषशुक्ल-चतुर्दश्यां केवलज्ञान-प्राप्ताय श्रीअभिनंदननाथ जिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।4
जोग निरोध अघाति-घाति लहि, गिरसमेद” मोख। मास सकल-सुखरास कहे, बैशाख-शुकल-छठ चोख।।
चतुर-निकाय आय तित कीनो, भगत-भाव उमगाय। हम पूजत इत अरघ लेय जिमि, विघन-सघन मिट जाय।।
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