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सुरगनरकपशुगति में नाहीं, आलसहरन करन सुख ठाहीं ॥
ठाही पृथी जल आग मारुत, रूख त्रस करुना धरो। सपरसन रसना घ्रान नैना, कान मन सब वश करो ॥ जिस बिना नहिं जिनराज सीझे, तू रुल्यो जग-कीच में। इक घरी मत विसरो करो नित, आव जम-मुख बीच में ॥ ॐ ह्रीं उत्तमसंयमधर्माङ्गाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
तप चाहै सुरराय, करम-शिखर को वज्र है। द्वादशविधि सुखदाय, क्यों न करै निज सकति सम ॥ उत्तम तप सब माहिं बखाना, करम-शैल को वज्र समाना। बस्यो अनादिनिगोद-मँझारा, भू-विकलत्रयपशुतन धारा ॥ धारा मनुष तन महादुर्लभ, सुकुल आयु निरोगता।
श्रीजैनवानी तत्त्वज्ञानी, भई विषय-पयोगता ॥ अति महा-दुरलभ त्याग विषय-कषाय जो तप आदरें । नर-भव-अनूपम-कनक-घर पर, मणिमयी कलसा धरै ॥ ॐ ह्रीं उत्तमतपोधर्माङ्गाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
दान चार परकार, चार-संघ को दीजिए।
धन बिजुली उनहार, नर-भव-लाहो लीजिए । उत्तम त्याग कह्यो जग सारा, औषध शास्त्र अभय आहारा ।
निहचै राग-द्वेष निरवारै, ज्ञाता दोनों दान सँभारै ॥ दोनों सँभारे कूप-जलसम, दरब घर में परिनया। निज हाथ दीजे साथ लीजे, खाय खोया बह गया। धनि साध शास्त्र अभय-दिवैया, त्याग राग विरोध को। बिन दान श्रावक साधु दोनों लहैं नाहीं बोध को ॥ ॐ ह्रीं उत्तमत्यागधर्माङ्गाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
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