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श्रीपार्श्वनाथ जिन-पूजा (अहिच्छत्र) (रचयिता - राजमल जी)
अतिशय-क्षेत्र महान जगत में अहिक्षेत्र मंगलकारी। तपो-भूमि प्रभु पार्श्वनाथ की भव्यजनों को सुखकारी।। यह उपसर्ग-भूमि जिसको लखकर विराग उर में आता।
ज्ञान-तीर्थ कैवल्य-भूमि के दर्शन कर मन हर्षाता।। प्रथम देशना भूमि यही है पार्श्वनाथ प्रभु की जय-जय। भक्ति विनय से प्रभु पूजन का भाव हृदय में हुआ उदय।। पार्श्वनाथ प्रभु के चरणों में सादर शीश झुकाऊँ मैं।
अविनश्वर लक्ष्मी पाने को चरण-शरण में जाऊँ मैं।। ॐ ह्रीं श्रीअहिक्षेत्रपार्श्वनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्)
ऊँ ह्रीं श्रीअहिक्षेत्रपार्श्वनाथ जिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ऊँ ह्रीं श्रीअहिक्षेत्रपार्श्वनाथजि नेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
शुद्धभाव जल के बिन स्वामी चारों गति में भरमाया। जन्म-मरण पर जय पाने को शरण आपकी मैं आया।।
अहिक्षेत्र-प्रभु पार्श्वनाथ के दर्शन करके हर्षाया।
तपो-भूमि कैवल्य-भूमि को वन्दन कर अति सुख पाया।।1।। ॐ ह्रीं श्रीअहिक्षेत्रपार्श्वनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
शुद्ध भावचन्दन बिन स्वामी भवाताप में झुलसाया। यह संसार-ताप हरने को शरण आपकी मैं आया।।
अहिक्षेत्र-प्रभु पार्श्वनाथ के दर्शन करके हर्षाया। तपो-भूमि कैवल्य-भूमि को वन्दन कर अति सुख पाया।। 2।। ॐ ह्रीं श्रीअहिक्षेत्रपार्श्वनाथजिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
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