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ये धूप अनल में खेने से, कर्मों को नहीं जलायेगी। निज में निज की शक्ति ज्वाला, जो राग द्वेष नशायेगी । उस शक्ति दहन प्रगटाने को, श्री देव शास्त्र गुरु को ध्याऊँ।
विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊँ। ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यः श्रीविद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्यः श्री अनन्तानन्त
सिद्धपरमेष्ठिभ्योअष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।
पिस्ता बादाम श्रीफल लवंग, चरणन तुम ढिंग मैं ले आया। आतमरस भीने निजगुण फल, मम मन अब उनमें ललचाया। अब मोक्ष महाफल पाने को, श्रीदेव शास्त्र गुरु को ध्याऊँ।
विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊँ। ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यः श्रीविद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्य: श्री अनन्तानन्त सिद्धपरमेष्ठिभ्यो
मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ।
अष्टम वसुधा पाने को, कर में ये आठों द्रव्य लिये। सहज शुद्धस्वाभाविकता से, निज में निज गुण प्रकट किये ॥ ये अर्घ्य समर्पण करके मैं, श्री देव शास्त्र गुरु को ध्याऊँ ।
विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊँ।। ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यः श्रीविद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्यः श्री अनन्तानन्त सिद्धपरमेष्ठिभ्यो
अनर्घपदप्राप्तये अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ।
जयमाला
देव शास्त्र गुरु बीस तीर्थंकर, सिद्धप्रभु भगवान ।
अब वरयूँ जयमालिका, करूँ स्तवन गुणगान ॥१॥ नसे घातिया कर्म अर्हत देवा, करें सुर-असुर नर-मुनि नित्य सेवा। दरश ज्ञान सुख बल अनन्त के स्वामी, छियालीस गुण युक्त महाईश नामी ॥
तेरी दिव्य वाणी सदा भव्य मानी, महा मोह विध्वंसिनी मोक्ष-दानी ।
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