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अनेकान्तमय द्वादशांगी बखानी, नमो लोक माता श्री जैन वाणी ॥ विरागी अचारज उवज्झाय साधू, दरश-ज्ञान भण्डार समता अराधूं ॥ नगन वेशधारी सु एका विहारी, निजानन्द मंडित मुकति पथ प्रचारी ॥
विदेह क्षेत्र में तीर्थंकर बीस राजे, विहरमान वं, सभी पाप भाजे । न[ सिद्ध निर्भय निरामय सुधामी, अनाकुल समाधान सहजाभिरामी ॥
देव शास्त्र गुरु बीस तीर्थंकर, सिद्ध हृदय बिच धर ले रे ।
पूजन ध्यान गान गुण करके, भव सागर जिय तर ले रे॥ ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यः श्रीविद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्यः श्री अनन्तानन्त सिद्धपरमेष्ठिभ्यो
अनर्घ्यपदप्राप्तये जयमाला महायँ निर्वपामीति स्वाहा ।
भूत भविष्यत वर्तमान की तीस चौबीसी मैं ध्याऊँ,
चैत्य चैत्यालय कृत्रिमाकृत्रिम तीन लोक के मन लाऊँ । ॐ ह्रीं त्रिकालगततीसचौबीसीत्रिलोकसम्बन्धिकृत्रिमाकृत्रिम-चैत्यालयेभ्यो अर्घ्यं ।
चैत्य भक्ति आलोचन चाहं, कायोत्सर्ग अघ नाशन हेत । कृत्रिमा-कृत्रिम तीन लोक के राजत हैं जिन बिम्ब अनेक ॥ चतुर निकाय के देव जजें ले अष्ट द्रव्य निज भक्ति समेत । निज शक्ति अनुसार जजूं मैं, कर समाधि पाऊँ शिवखेत ॥ ॐ ह्रीं कृत्रिमाकृत्रिमचैत्यालयसम्बन्धिजिनबिम्बेभ्योअर्घ्य निर्व० ।
पूर्व मध्य अपराह्न की बेला, पूर्वाचार्यों के अनुसार । देव वन्दना करूं भाव से सकल कर्म की नाशन हार ॥ पंच महागुरु सुमरन करके, कायोत्सर्ग करूं सुखकार । सहज स्वभाव शुद्ध लख अपना जाऊँगा अब मैं भव पार ॥
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
(नौ बार णमोकार मंत्र जपे)
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