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चौथि कृष्ण फागुन विषे, हनि अघाति जिनराय।
मोक्ष समेद थकी गये, जजू चरण गुणगाय।।5।। ऊँ ह्रीं फाल्गुनकृष्णा-चतुर्थ्यां मोक्षकल्याण-मण्डिताय श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला (दोहा) पदमनाथ के पदमपद, महा-अरुण अविकार। नमूं उभैकर शीश धरि, देहु देव मति सार।।1।।
(पद्धरि छन्द) जय पद्मनाथ कौसंविधान, ऊपर ग्रैवक तजिकें विमान। आये जु सुसीमा गर्भसार, वदि माघ षष्ठि चित्रा सुवार।1। वदि कातिक तेरसि जन्म एव, आये तित चतुर्निकाय देव। जय नन्द-नन्द करते अपार, गिरि मेरु कियो अभिषेक सार।2।
धरि पदमनाम हरि पूजि पाय, नृप धारण के दरवार लाय। बहु नृत्य कर्यो को कर बखान, लखि मगन भये पित मात आन।3।
जिन वृद्ध भये तन अरुणभान, धनु दोय सतक पंचास जान। नृप बाल पूर्व उनतीस लख्य, सुख मगन भये तजि राजदख्य।4।
षट् वर्ष कर्यो तप घोर वीर, ऋतु ग्रीषम में गिरि शिखर धीर। रवि किरण तपै मनु अग्निज्वाल, धरि ध्यान खड़े निरभै विशाल।5। ऋतु पावस तरुतल चतुरमास, धरि जोग खड़े अहिलिप्त डांस। ऋतु शीत तरंगनि ताल वास, बाजै समीर अनुभव विलास।6। धरि ध्यान अग्नि चउ घाति जारि, लहि ज्ञान चराचर सब निहारि।
समवादि सहित करिकै विहार, धर्मोपदेश दे भव्यतार।7। षट् वर्ष घाटि लख पूर्वज्ञान, सब आयु पूर्व लख तीस जान। फागुन वदि चौथि समेद थान, हनि के अघाति पहुँचे निर्वान।8।
हूँ करूँ विनती जोरि हाथ, मुझ देहु अखै पद पदमनाथ।
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