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दुद्धर-तप सुकुमार-वय, काशी-देश विहार।
पौह कृष्ण एकादशी, धर्यो जनँ गुण गायं। ॐ ह्रीं पौषकृष्णा-एकादश्यां तपोमंगल-मंडिताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।3।
कृष्ण चैथि शुभ चैत को, हने घाति लहि ज्ञान।
कह्यौ धर्म दुविधा मुदा, जजू बोध भगवान।। ऊँ ह्रीं चैत्रकृष्णा-चतुथ्यां ज्ञानमंगल-मंडिताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।4।
सप्तमि श्रावण शुक्ल ही, शेष कर्म हनि वीर।
अविचल शिवथानक लयो, जनँ चरण धर धीर॥ ऊँ ह्रीं श्रावणशुक्ला-सप्तम्यां मोक्षमंगल-मंडिताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।51
जयमाला
पार्श्वनाथ-जिन के नमूं, चरण-कमल जुगसार। प्रचुर भवार्णव तुम हाँ, मुझ तारौ भव-तार।।1।। (चाल - ते साधु मेरे उर बसो मेरी हरदु पातक पीर)
श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्र वन्दूँ, शुद्ध मन-वच-काय। धनि पिता अश्वसेनजी, धनि धन्य वामा माय।।
धनि जनम काशी देश में वाराणसी शुभ ग्राम। प्रभु पास द्यो मुझ दास की सुनि अरज अविचल-ठाम।।1।।
अतिशय मनोहर सजल-जलद-समन सुन्दर काय।
मुख देखिकैं ललचाय लोचन नैक तृपति न थाय।। पद-कमल-नख-दुति चपल-चपला कोटि-रवि-छवि खाम। प्रभु पास द्यो मुझ दास की सुनि अरज अविचल-ठाम।।2।।
द्वै अधोमुख पंचाग्नि तपतो कमठ को चर कूर। तित अगनि जरते नाग बोधे देय वच वृष-पूर।। वे भये हैं धरणेन्द्र-पदमा भवनत्रिक ऋधि-धामै।
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