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प्रभु पास द्यो मुझ दास की सुनि अरज अविचल-ठाम।।3।।
इम उरग मरत निहारिकैं सब अथिर शरण न जोय। संसार यो भ्रम जाल है जिम चपल चपला होय।।
हूँ एक चेतन सासतो शिव लहूँ तजिकै धाम। प्रभु पास द्यो मुझ दास की सुनि अरज अविचल-ठाम।।4।।
इम चितवता लोकान्त के सुर आय पूजे पाय। परणाम करि सम्बौधि चाले चितवते गुण ध्याय।। धनि धन्य वय सुकुमार में तप धर्यो अतिबल-धाम।। प्रभु पास द्यो मुझ दास की सुनि अरज अविचल-ठाम।।5।।
वन्, समै जिन धरी दिछया विहरि अतिछिति जाय। तित ठये बन मैं दुष्ट वो सुर कमठ को चर आय।।
अतिरूप भीषण धारिमै फुकार पन्नग श्याम।। प्रभु पास द्यो मुझ दास की सुनि अरज अविचल-ठाम।।6।।
द्वै तुंग धारण सिंध गरज्यौ उपल रज बरसाय। करि अगनि-वरषा मेघ-मूसल तडित परलय-वाय।। प्रभु धीर वीर अत्यन्त निरभय असुर को बल खाम। प्रभु पास द्यो मुझ दास की सुनि अरज अविचल-ठाम।।7।।
वाही समै धरणेनन्द्र को नय मुकुट कंप्यो पीठ।
हरि आय सिंघासन रच्यो फणमण्ड कीनों ईठ।। तब असुर करनी भई निरफल अचल जिन जिम धाम। प्रभु पास द्यो मुझ दास की सुनि अरज अविचल-ठाम।।8।।
धरि ध्यान जोग निरोधिकै चउघाति कर्म उपारि। लहि ज्ञान केवलौं चराचर-लोक सकल निहारि।।
समवादि-भूति कुबेर कीनी कहै किम बुद्धि खाम।। प्रभु पास द्यो मुझ दास की सुनि अरज अविचल-ठाम।।9।।
हरि करी नुति कर जोरि विनती धन्य दिन इह बार। धनि घड़ी या प्रभु पार्श्वजी हम लहैं भव को पार।। धनि धन्य वाणी सुनी मैं अघ-नासनी पुनि धाम।।
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