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(घत्ता) जै जै भवभंजन, जन-मनरंजन, दया-धुरंधर कुमतिहरा ।
वृंदावन वंदत मन-आनन्दित, दीजै आतमज्ञान वरा।
ॐ ह्रीं श्री संभवनाथ जिनेन्द्राय जयमाला-पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।16।
(छन्द अडिल्ल)
जो बाँचे यह पाठ सरस संभव-तनो ।
सो पावें धन-धान्य सरस सम्पति घनो ।। सकल-पाप छै जाय सुजस जग में बढ़े। पूजत सुरपद होय अनुक्रम शिव चढ़े ॥17॥
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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