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हे प्रभु तव शरीर-कांति है सुवर्णमय अतिशय सुन्दर। चन्द्र धवल समान कीर्ति व्याप्त हो रही त्रिभुवन पर।। उज्ज्वल अक्षत के लेकर मैं अक्षय-पद पाने आया हूँ।।
बड़ागाँव के पारस प्रभु मैं पूजा करने आया हूँ।। 3।। ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
काम-रोग-व्याधि नाशन को वैद्यराज प्रभु तुम हो। ईर्ष्या मन मदन नाशन को त्रिभुवनपति प्रभु तुम हो।। कामबाण विध्वंस करन को पुष्प संजोकर लाया हूँ।।
बड़ागाँव के पारस प्रभु मैं पूजा करने आया हूँ।। 4। ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय कामबाण-विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
तृष्णा विजयी हो कर प्रभुवर इस क्षुधा-रोग का नाश किया। मम क्षुध रोग ना मिट पाया इस कारण गति-गति भ्रमण किया।।
यह क्षुधा मिटाने को प्रभुवर नैवेद्य बनाकर लाया हूँ।।
बड़ागाँव के पारस प्रभु मैं पूजा करने आया हूँ।। 5।। ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धर्मसुध बरसाने को प्रभु पूर्ण चन्द्रमा तुमही हो। मिथ्या-अन्धकार मिटाने को प्रभु सहस्त्र सूर्य तुमही हो।। मोह-अन्धकार मिटाने को प्रभु दीप सजाकर लायाहूँ।।
बड़ागाँव के पारस प्रभु मैं पूजा करने आया हूँ।। 6।। ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
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