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चौपाई उत्तम छिमा गहो रे भाई, इह भव जस पर-भव सुखदाई। गाली सुनि मन खेद न आनो, गुन को औगुन कहै अयानो ।
गीता छन्द कहि है अयानो वस्तु छीने, बाँध मार बहुविधि करै ।
घर नै निकारै तन विदार, बैर जो न तहाँ धरै ॥ तें करम पूरब किये खोटे, सहै क्यों नहिं जीयरा। अति क्रोध-अगनि बुझाय प्रानी, साम्यजल ले सीयरा ॥ ॐ ह्रीं उत्तमक्षमादिधर्माङ्गाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
मान महाविष रूप, करहि नीच-गति जगत में।
कोमल सुधा अनूप, सुख पावै प्रानी सदा ॥ उत्तम मार्दव-गुन मन माना, मान करन कौ कौन ठिकाना । बस्यो निगोद माहिं तें आया, दमरी रूकन भाग बिकाया ॥
रूकन बिकाया भागवश तें, देव इकइन्द्री भया। उत्तम मुआ चाण्डाल हूवा, भूप कीड़ों में गया । जीतव्य जोवन धन गुमान, कहा करै जल-बुदबुदा । करि विनय बहु-गुन बड़े जन की, ज्ञान का पावै उदा ॥ ॐ ह्रीं उत्तममार्दवधर्माङ्गाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
कपट न कीजे कोय, चोरन के पुर ना बसै।
सरल सुभावी होय, ताके घर बहु सम्पदा ॥ उत्तम-आर्जव रीति बखानी, रंचक दगा बहुत दुखदानी । मन में हो सो वचन उचरिये, वचन होय सो तन सौं करिये ॥
करिये सरल तिहुँ जोग अपने, देख निरमल आरसी। मुख करै जैसा लखै तैसा, कपट-प्रीति अंगार-सी ॥
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