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सचिय तब जाय परसूत-थल मोदमें, मातु करि नींद लीनों तुम्हें गोद में।12।
आन-गिरवान नाथहिं दियो हाथ में, छत्र अर चमर वर हरि करत माथ में। चढ़े गजराज जिनराज गुन जापियो, जाय गिरिराज पांडुकशिला थापियो।13।
लेय पंचम उदधि-उदक कर-कर सुरनि, सुरन कलशनि भेर सहित चर्चित पुरनि। सहस अरु आठ शिर कलश ढारे जबँ, अघघ घघ घघघ घघा भभभ भभ भौ तबैं।14।
धधध धध धधध धध धुनि मधुर होत है, भव्यजन हंसके हरस उद्योत है। भयो इमि न्हौन तब सकल गुन रंग में, पोछि श्रृंगार कीनों शची अंग में। 151 आनि पितुसदन शिशु सौंपि हरि थल गयो, बालवय तरुन लहि राजसुख भोगयो। भोग तज जोग गहि, चार अरि को हने, धारि केवल परम धरम दुइविधि भने।16।
नाशि अरि शेष शिवथानवासी भये, ज्ञानदृग शर्म वीरज अनन्ते लये। दीन जन की करुण वानि सुन लीजिये, धरमके नन्दको पार अब कीजिये।17।
(घत्ता) जय करुनाधारी, शिवहितकारी तारन तरन जिहाजा हो। सेवत नित वन्दे मनआनंदे, भवभय मेटनकाजा हो।18। ऊँ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय पूर्णायँ निर्वपामति स्वाहा।
श्रीसुपार्श्व पदजुगल जो, जजे पढ़े यह पाठ। अनुमोदे सो चतुर नर, पावे आनन्द ठाठ।।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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