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जयमाला - त्रिभंगी छन्द जय जय मुनिसुव्रत, धरत महाव्रत, कर रिमल, चित परम भये।
देवन के देवा, सब सुख देवा, शचिपति सेवा, मांहि ठये।। जय जय गुणसागर, जगत उजागर, हो नरनागर, दोष हरे। तेरी अद्भुत गति, लखत न गणपति, मनरंग नितप्रति, पैर परे।।
सृग्विणी छन्द जय कृपा-कन्द आनन्द रूप सदा, हेरि हार्यो बिड़ौजा न तृष्णा कदा। देव धरी छविह मारकी मारनी, रोग शोक व्यथा भव व्यथा टारनी।। गोहनी मुक्ति बामा तनी वोहनी। सोहनी तीन भू की महा-मोहिनी।। देव धरी छविह मारकी मारनी, रोग शोक व्यथा भव व्यथा टारनी।। चन्द्र की चन्द्रिका को तिरस्कारिनी। सूर की जोति शोभा अनन्ती बनी।। देव धरी छविह मारकी मारनी, रोग शोक व्यथा भव व्यथा टारनी।। पूद्गलाणु जेते लोक में थे भले। ल्याय धाता रची एक भा-मण्डली।। देव धरी छविह मारकी मारनी, रोग शोक व्यथा भव व्यथा टारनी।। कर्मनाशा शिवाशा दुराशा नहीं। दृष्टि नासा धरे ना हिं रासा कही।। देव धरी छविह मारकी मारनी, रोग शोक व्यथा भव व्यथा टारनी।। क्षत्पिपासादि द्वाविंश पीरा हरी। रूप सौन्दर्य की है पताका खरी।। देव धरी छविह मारकी मारनी, रोग शोक व्यथा भव व्यथा टारनी।। लोकते जासु के लोक होवे नहीं। लोक को भद्रकारी सुलोको कहीं।। देव धरी छविह मारकी मारनी, रोग शोक व्यथा भव व्यथा टारनी।। ज्ञान की राजधानी बखानी वरा। लोक जानी प्रवानी सुहानी गिरा।। देव धरी छविह मारकी मारनी, रोग शोक व्यथा भव व्यथा टारनी।। दक्ष जो की गहे पक्ष प्यारी भले। चक्रधारी तनी लक्ष पावे दले।। देव धरी छविह मारकी मारनी, रोग शोक व्यथा भव व्यथा टारनी।। खूब खूबी लसे जो वसे ना कही। जाहि देखे नसे पाप जेते सही।। देव धरी छविह मारकी मारनी, रोग शोक व्यथा भव व्यथा टारनी।। राम केसौरु शेषो न लेशो लहे। पार गामे गनेसो कलेसो दहे।।
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