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जयस्वयंबुद्ध शम्भू महान, जय ज्ञानचक्षि-करि विश्व जान।2।
जय स्व-पर-हितू मदमोह-सूर, दीक्षा-कृपाण गहि तुरत चूर। जय तेरह चारित अमल धार, हत-राग-द्वेष वय अति कुमार।3। तुम ज्ञानपोत लहि भवि अनेक, भव-सिन्धु तरे संसय न एक। तुम वचनामृत-तीरथ महान, द्वै पावन जे करिहैं सनान।4।
दुःकर्म-पंक छिन ना रहाय, तुम बैन-मेघ करिकें जिनाय। तुम ज्ञान-भान करिकें महेश, द्वै तिमिर-मोह को छय अशे।5।
शिव-पन्थ भव्य निर्विघ्न जाय, तेरी सहाय निर्वान पाय। बहुत जोगीश्वर तम शरण थाय, निर्वान गए जासी अघाय।6।
जय दर्शन-ज्ञान-चरित्त-ईश, धर्मोपदेश-दाता महीश। जय भव्यनि कर तारन-जिहाज, भवसिन्धु-प्रचुर तुम नाम पाज।7। तुव नाम मन्त्र जो चित धरेय, सर्वारथ-सिधि शिव-सौख्य लेय। मैं विनऊँ त्रिविधा जोरि हाथ, मुझ देहु अछै-पद मल्लिनाथा8।
(घत्ता-छन्द) श्रीमल्लि जिनेश्वर नमतसुरेश्वर, वसु-विधि करि जुग-पद चरचै। दुह-जर-मरणावलि नसै भवावलि, रामचन्द्र शिवतिय परच।। ऊँ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय पूर्णाध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि॥
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