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सित दश वैशाख महाना, प्रभु पायो केवल ज्ञाना।
चउ घाती-कर्म नशायो, अरहंत परमपद पायो। पूजैं तव पद हे स्वामी, वर्धमान विशद परिणामी।
ऊँ ह्रीं वैशाखशुक्ला-दशम्यां ज्ञानकल्याणक-प्राप्ताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मावस कार्तिक अँधियारी, प्रभु ने वरनी शिवनारी ।
सुरगण पावापुर आए, नर-नारी दीप जलाए।
तुम सिद्ध भए अभिरामी, हम पूजैं पद शिवधामी।
ऊँ ह्रीं कार्तिककृष्णा-अमावस्यां मोक्षमंगल-मंडिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला
आपकी प्रतिमा सहज निजभाव को मन में जगाती । जो परम सुख पा लिया उसकी मनोहर छवि दिखाती।। इन्द्र के से सहस्र लोचन जो अगर होते हमारे । तृप्त नहीं होते नयन प्रभु प्राप्त कर दर्शन तुम्हारे || अनुपम शान्ति विराज रही दर्शन से है हर्ष महान । उन्नत नागाचल पर जैसे महावीर ही धरते ध्यान || ताम्रवर्ण प्रभु दीप्ति कनक सी प्रतिमा शोभित है अभिराम। हे सन्मति! प्रभु महावीर! है चरणों में शतबार प्रणाम।। भव भव में संसारी जन को ग्रसता है यह काल कराल । नाथ आपकी भक्ति हरण करती है उसका भय तत्काल || अव्याबाध अचिंत्य अतुल है अनुपम शाश्वत सुख शिवधाम । हे सन्मति! प्रभु महावीर! है चरणों में शतबार प्रणाम।। वीतराग निर्ग्रन्थ दिगम्बर, भव्यरूप है उन्नत भाल। नासा पर हैं नयन, स्वयं में लीन हुआ है हृदय विशाल ।। गगन के नीचे प्रभु पद्मासन ध्यानलीन निष्काम। हे सन्मति! प्रभु महावीर! है चरणों में शतबार प्रणाम ।। नाथ आपने भवभोगों को रोग समझ कर छोड़ दिया।
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