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तुम आत्मसुख में लीन हो प्रभु नित्य हो स्वाधीन हो। हे नाथ! पा निर्वाणपद तुम मोक्षपद आसीन हो।।
ऐसा न सच्चा ज्ञानदर्शन और शिवसुख है हमें।
वह मोक्षफल पाने प्रभो! फल आज अर्पित है तम्हें।। ऊँ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
तुम हो चिरंतन नित्य ही प्रभु परमपद में वास है। है जन्म-मरण-जरा ने जिससे हृदय में उल्लास है।। उस परमपद की प्राप्ति को निज रूप मैं उर में धरूँ।
प्रभु अष्ट द्रव्यों से समन्वित अर्घ से पूजा करूँ।। ऊँ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक दिन षष्ठी शुक्ला अषाढ़ा, त्रिशला माँ प्रभु उर धारा।
सुर मुदित रतन बरसावें, माता की सेव करावें।
जन-मन में हर्ष अपारा, हम पूर्जे प्रभु अविकारा। ऊँ ह्रीं आषाढशुक्ला-षष्ट्यो गर्भमंगल-मंडिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
सित तेरस चैत महाना, जनम इन्द्र ने जाना। पाण्डुक गिरि प्रभु पधराए, क्षीरोदधि न्हवन कराए।
कुण्डग्राम जन्म कल्याणा, पूजें सन्मति भगवाना। ॐ ह्रीं चैत्रशुक्ला-त्रयोदश्यां जन्ममंगल-प्राप्ताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
मंगसिर कृष्णा दश आयो, प्रभु दुर्धर तप अपनायो।
मन-वच-तन योग सभारे, तिस अन्तर भेद उधारे।
तप करि बहु कर्म खपायो, हम पूजत पद चित लायो। ऊँ ह्रीं मार्गशीर्षकृष्णा-दशम्यां तपोमंगल-मंडिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्रायअर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
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