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________________ हे आत्मज्ञानी परम-ध्यानी तुम स्वयं में लीन हो । तुम भोग-रोग-विहीन हो हे वीर तुम स्वाधीन हो।। मैं छोड़ दूँ परद्रव्य अब निजद्रव्य में ही वास हो । अर्पित तुम्हें है पुष्प जिससे कामशत्रु विनाश हो।। ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। आमरस से तृप्त हो आनन्द के आगर हो। तुम ज्ञान दर्शन और सुख के शक्ति के भण्डार हो ।। मैंने चखे हैं द्रव्य अगणित किन्तु तृप्ति विहीन हो। अर्पित तुम्हें व्यंजन करूँ जो क्षुधा - कष्ट विलीन हो । ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। तुम ज्ञान के दीपक अंधेरा हर लिया अज्ञान का। तुमने हरा है दर्प हे प्रभु मोह- शत्रु महान का।। यह जीव मोही मान अपनी देह को पर में रमे। इस मोह-तम के नाश को प्रभु दीप अर्पित है तुम्हें।। ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। हे नाथ! ध्यानाताप से तुमने जलाया कर्म को पाया तुम्हीं ने ज्ञान-दर्शन-चरित सम्यक् धर्म को। जड़ कर्म के वश कर न पाया पार इस संसार को । है धूप अर्पित दहन को इस कर्मपारावार को || ऊँ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। 659
SR No.009243
Book TitleChovis Bhagwan Ki Pujaye Evam Anya Pujaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages798
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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