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अर्ध्यावली (अडिल्ल छन्द) वृषभ जिनेश्वर आदि अंत महावीर जी। ये चौबीस जिनराज हनें भवपीर जी ॥ ऋषि-मंडल बिच ह्रीं विर्षे राजै सदा।
पूजू अर्घ्य बनाय होय नहिं दुख कदा ॥ ॐ हीं सर्वोपद्रव विनाशन-समर्थाय वृषभादि-चतुर्विंशति तीर्थंकर-परमदेवाय
अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
आदि अवर्ग सु अन्तजानि श-ष-स-हा । येवसुवर्ग महान यन्त्र में शुभ कहा ॥ जल शुभ गंधादिक वर द्रव्य मंगायके।
पूजहुँ दोऊ करजोड़ि शीश निज नायके । ॐ ह्रीं सर्वोपद्रव विनाशन-समर्थाय अवर्गादि श-ष-स-हान्त
अष्टवर्गाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
कामिनी मोहिनी छन्द परम उत्कृष्ट परमेष्ठी पद पांच को। नमत शत इन्द्र खगवृन्द पद सांच को । तिमिर अघनाश करणको तुम अर्क हो ।
अर्घ लेय पूज्य पद देत बुद्धि तर्क हो। ॐ ह्रीं सर्वोपद्रव-विनाशन-समर्थाय पंच परमेष्ठी परम देवाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
सुन्दरी छन्द सुभग सम्यग् दर्शन ज्ञान जू । कह चारित्र सुधारक मान जू।
अर्घ्य सुन्दर द्रव्य सु आठ ले । चरणपूजहूं साज सु ठाठले ॥ ॐ ह्रीं सर्वोपद्रव-विनाशाय-समर्थाय सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप रत्नत्रयाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
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