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भवनवासी देव व्यन्तर ज्योतिषी कल्पेन्द्र जू। जिनगृह जिनेश्वर देव राजें रत्न के प्रतिबिम्ब जू ॥
तोरण ध्वजा घंटा विराजे चंवर ढुरत नवीन जू ।
वर अर्घ्य ले तिन चरण पूजौं हर्ष हिय अति लीन जू ॥ ॐ ह्रीं सर्वोपद्रव विनाशन-समर्थेभ्यः भवनेन्द्र व्यंतरेन्द्र ज्योतिषीन्द्र कल्पेन्द्र चतुःप्रकार देवगृहेषु
जिन चैत्यालयेभ्यः अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
दोहा अवधि चार प्रकार मुनि, धारत जे ऋषिराय ।
अर्घ्य लेय तिन चर्ण जजि, विघन सघन मिट जाय ॥ ॐ ह्रीं सर्वोपद्रव-विनाशाय-समर्थेभ्यः चतुःप्रकार अवधिधारक मुनिभ्यः
अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
भुजंग प्रयात कही आठ ऋद्धि धरे जे मुनीशं, महा कार्यकारी बखानी गनीशं ।
जल गंध आदि दे जजौं चर्न तेरे, लहौं सुख सबै रे हरौं दुःख फेरे ॥ ॐ ह्रीं सर्वोपद्रव विनाशन-समर्थेभ्यः अष्टऋद्धि सहित मुनिभ्यः अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
श्री देवी प्रथम बखानी । इन आदिक चौबीसों मानी।
तत्पर जिन भक्ति विर्षे हैं। पूजत सब रोग नशैं हैं । ॐ ह्रीं सर्वोपद्रव विनाशन-समर्थेभ्यः श्री आदि सर्वदेवि सेवितेभ्यः चतुर्विंशति जिनेन्द्रेभ्यः
अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
हंसा छन्द यंत्र विषै वरन्यो तिरकोन । ह्रीं तहं तीनयुक्त सुखभोन ॥ जल फलादि वसुद्रव्य मिलाय । अर्घ सहित पूजू शिरनाय ॥ ॐ ह्रीं सर्वोपद्रव विनाशन-समर्थाय त्रिकोणमध्ये तीन ह्रीं संयुक्ताय
अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
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