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चैत्यालय चारों सुखकारी, मन वच तन वन्दना हमारी । साढ़े बासठ सहस उँचाई, वन सुमनस शोभै अधिकाई।
चैत्यालय चारों सुखकारी, मन वच तन वन्दना हमारी ॥ ऊँचा जोजन सहस-छत्तीसं, पाण्डुक-वन सोहै गिरि-सीसं । चैत्यालय चारों सुखकारी, मन वच तन वन्दना हमारी ॥
चारों मेरु समान बखाने, भूपर भद्रसाल चहुँ जाने । चैत्यालय सोलह सुखकारी, मन वच तन वन्दना हमारी ॥ ऊँचे पाँच शतक पर भाखे, चारों नन्दनवन अभिलाखे । चैत्यालय सोलह सुखकारी, मन वच तन वन्दना हमारी ॥ साढ़े पचपन सहस उतंगा, वन सौमनस चार बहुरंगा। चैत्यालय सोलह सुखकारी, मन वच तन वन्दना हमारी ॥ उच्च अठाइस सहस बताये, पांडुक चारों वन शुभ गाये। चैत्यालय सोलह सुखकारी, मन वच तन वन्दना हमारी ॥ सुर नर चारन वन्दन आवै, सो शोभा हम किह मुख गावें । चैत्यालय अस्सी सुखकारी, मन वच तन वन्दना हमारी ॥
दोहा पंच मेरु की आरती, पढ़े सुनै जो कोय ।
द्यानत फल जानै प्रभू तुरत महासुख होय ॥ ॐ ह्रीं पञ्चमेरुसम्बन्धिजिनचैत्यालयस्थजिनबिम्बेभ्यो महाघ निर्वपामीति स्वाहा ।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि॥
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