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किते पापी तारे, जग-भ्रमण तें क्यों सरहिये, भलो जानो भता, दिन महिनमो जेठ कहिये। लियो नीके स्वामी, सिखर परतें सिद्धिथल को,
जजों आछो अघ्यं, ले चरण भूलों न पल को। ओं ह्रीं ज्येष्ठकृष्णचतुर्दश्यां मोक्षकल्याणकप्राप्ताय श्री शान्तिनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला
त्रिभंगी छन्द जय जय गुणगणधर, धर्म-चक्र-धर, मुकति-वधू-वर, रटत मुनी। जय त्याग सुदर्शन, लहत सुदर्शन, चित अति परसन, परम धुनी।
जय जय अघ टारन, कुमति निवारन, तुम पद तारन तरन सदा। जय जो तुम ध्यावत, कष्ट न पावत, करम तनों ऋण, होत अदा।
नाराच छन्द पदारविन्द शुद्ध जानि, देव जाति चारिके, नमें सदा आनन्द पाप, मन्दरता प्रचारिके। जिनेन्द्र शान्तिनाथ की, सदा सहाय लीजिये, महान मोह अन्त के, अनन्त काल जीजिये।।
लखे पवित्र होत नैन, चैन चित्त में बढ़े। महामिथ्यात्व अन्धकार, तातकाल में कटे।। जिनेन्द्र शान्तिनाथ की, सदा सहाय लीजिये, महान मोह अन्त के, अनन्त काल जीजिये।। नशाय जाय कोटि जन्म, के अरिष्ट देखते।
भले सु वीतराग भाव, होय रूप पेखते।। जिनेन्द्र शान्तिनाथ की, सदा सहाय लीजिये, महान मोह अन्त के, अनन्त काल जीजिये।। निशाप सो मुखारविन्द, देखि पाकशासना। चकोर के अधीन रूप, और की चितासना।।
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