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सित पय को पारण परम सार, सित चन्द्रदत्त दीनों उदार । सित कर में सो पयधार देत, मानो बाँधत भवसिन्धु सेत ॥७॥ मानो सुपुण्यधारा प्रतच्छ, तित अचरज पन सुर किय ततच्छ । फिर जाय गहन सित तप करंत, सित केवलज्योति जग्यो अनन्त ।
लहि समवसरण रचना महान, जाके देखत सब पापहान । जहं तरु अशोक शौभै उत्तंग, सब शोकतनो चूरै प्रसंग ॥९॥
सुर सुमनवृष्टि नभतें सुहात, मनु मन्मथ तज हथियार जात । बानी जिन मुखसौं खिरत सार, मनु तत्त्व प्रकाशन मुकुरधार ॥१०॥
जहँ चौसठ चमर अमर ढुरंत, मनु सुजसमेघ झरि लगिय तन्त । सिंहासन है जहँ कमल जुक्त, मनु शिवसरवर को कमलशुक्त ॥११॥
दुंदुभि जित बाजत मधुर सार, मनु करम जीत को है नगार । सिर छत्र फिरै त्रय श्वेतवर्ण, मनु रतन तीन त्रय ताप हर्ण ॥१२॥
तन प्रभातनों मण्डल सुहात, भवि देखत निज भव सात सात । मनु दर्पण द्युति यह जगमगाय, भविजन भव मुख देखत सुआय ॥१३॥ ___ इत्यादि विभूति अनेक जान, बाहिज दीसत महिमा महान । ताको वरणत नहिं लहत पार, तौ अन्तरंग को कहै सार ॥१४ ॥
अनअन्त गुणनि-जुत करि विहार, धरमोपदेश दे भव्य तार। फिर जोगनिरोधि अघाति हान, सम्मेद थकी लिय मुकतिथान ।।।।
वृन्दावन वन्दत शीश नाय, तुम जानत हो मम उर जु भाय । तारौं का कहों सु बार-बार, मन वांछित कारज सार-सार ॥१६॥
घत्तानन्द जय चन्द-जिनंदा आनंदकंदा, भव-भय-भंजन राजै हैं । रागादिक-द्वन्द्वा हरि सब फन्दा, मुकति माँहि थिति साजै हैं ।
ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय महायँ निर्वपामीति स्वाहा ।
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