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महानवंश इक्ष्वाकु में चय, स्वर्ग आरणनै भये। धन देवि रामा मात के उर, कृष्ण फागुन में थये।। गर्भावतार-कल्याण सुरपति, ठानि सुरलोकें गये। जननी सुसेवा राखि धनपति, मास नव सुखसों गये।।1। अगहन सित प्रतिपद भली, जगसार हो, जनम सुराधिप जानि। मेरु सुदर्शन ले गये, जगसार हो, छीरोदक शुभ आनि।।
आनि जल अभिषेक करि फुनि, नृत्य तूर बजाइये। कहि पुष्पदन्त पिता सु जननी, सोपि मंगल गाइये।।
फुनि नृत्य ताण्डव हरी कीनों, कौन उपमा दीजिये। जन्म-कल्याण उछाह मन मैं, राखि नितहि जजीजिये।।2।। तन शशि सम धनु सत्त भलो जगसार हो, आयु पूरब लखदोय। लख पूरव सुख भोगिकें, जगसार हो, विरक्त भव होय।।
होय विरक्त सुकल परिवा, मास मगसिर वन गये। नमः सिद्धेभ्यः कह लोंच कीनो, ध्यान में प्रभु थिर भये।।
हरि केश पंचम-उदधि खेपे, आय पद-पूजा करी। निःकर्म-कल्याण सुमहिमा, पुण्य करता अघहरी।।3।। बरष चार बहु तप करे, जगसार हो, ध्यान अग्नि परजालि। कातिक सुदि दोयज भली, जगसार हो, घाति-चतुक लहु बालि।।
लहु बालि घाति उपाय केवल, लोक करवत् पेखही। समवादि सहित विहार करिकें, लहो धर्म विसेखही।। तुम वचन-अमृत पानतें, उर-दाह ततखिण ही मिट्यो। लखि ज्ञान-कल्याण सुमहिमा, मोह-तम मेरा फट्यो।।4।। गणधर-हरि-मुनि थुति करी, जगसार हो, सो थुति उनसों होय। धनि दिन यो धनि या घड़ी, जगसार हो, धनि-धनि मो चखि दोय।। दोय मो चखि तुम दरस देख्यो, परसि पद धनि कर भये।
धनि धन्य ये वसु अंग मेरे, ध्यान कर तुमको नये।।
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